चूल्हा जल नहीं रहा है
धुआं छोड़ रहा है
इतने सालों से पिछली दिवार के साए में
कभी बारिश कभी ओस से तरबतर
चूल्हा रूठ सा गया है
चिंगारी को डांट कर बुझा देता है
धुएँ में आँख मिच्मिचियाता हुआ मैं सामने फैले पीपल के पेड़ को देखता हूँ
तेज हवा में शोर करता हुआ अब थोडा कम बड़ा सा लगता है
बचपन में देर रात तक अगर नीद न आये, तो काकी
पीपल की तरफ इशारा करके बुदी चुड़ैल की याद दिलाती थी
चाँद भी तब पेड़ के पीछे छुप जाता था, और मैं चादर ओढ़ के आखें भींच के
मेरे सोने के बाद काकी, चाँद और पीपल खूब हंसते होंगे
मैं अब खूद भी थोडा हँस कर चूल्हे को फिर जलाता हूँ
पर चूल्हा रूठा सा टूटा सा लगता है
यह चूल्हा अब जल नहीं रहा
धुंआ छोड़ रहा है
चिंगारी को थक हार कर बुझा देता है
हमेशा तो यह जला रहता था
कभी रोटी कभी दाल कभी चावल कभी चाय
हमेशा तो यहीं बैठ कर हम कहानी सुना करते थे
कभी शहर की कभी जंगले की उस नदी के पार वाले गाँव की
कभी वोह दलदल में फंसे शेर की कभी दादा की दुनाली बन्दुक की
लपटों में हमेशा घिरा रहता था
आज इसके सामने बैठ कर चूल्हे को फिर जलाता हूँ
पर चूल्हा रूठा सा टूटा सा लगता है
यह चूल्हा अब जल नहीं रहा
धुंआ छोड़ रहा है
सारी कहानी शायद भूल गया है
थोड़ी कमर सीधे करके थोडा मुहं अपना धो कर
मैं सामने खेत में खड़े बच्चों का शोर सुनता हूँ
यहाँ न जाने कितनी शामें कंचे , गिल्ली डंडे और पतंगे के साथ बितायी थी
अब तो वो सारे निशाने और पेंचे भी याद नहीं
जाने कैसे वहां नौले में जा कर पानी लाते थे , कैसे यहाँ वीराने में भी पूरे जिंदगी जीते थे
इन विरानो में आज फिर वापस आकर जीना ढूँड रहा हूँ
यह चूल्हा लेकिन क्यूँ जलता नहीं
धुआं छोड़ रहा है
शायद अब मुझे पहचानता भी नहीं
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