Sunday, August 07, 2011

आबाद घर


दोपहर की शुरुआत हो चुकी है

तपिश से चिड़ियाँ भी कहीं चुप गयी

बंद कमरे में, पुराने पंखे के सामने ऊंघ रहा है कोई

पास में ही आज का अख़बार अभी अभी पढ़ के रखा है

फलक चंद घंटों की ही उम्र होती है इस अखबार की , अब इसमें तरबूज के छिलके रखे जायेंगे


दीवार पर से उखड़ने लगा है पेंट ,

अबकी दिवाली पर पोताई की शायद यह फिरसे मिन्नत कर रही है

पता नहीं कितनी दिवाली और होली बेरंग मायूस हो कर गयी इस घर से ,

दरवाजे की कुण्डी ही खोलता ही नहीं इस घर से कोई,

दीवार को शायद पता ही चला होगा, कैलेंडर भी नहीं है घर में

फिर से बहला देगा इस दीवार को, पगली अभी होंसला रख खुशियाँ तो अपने समय में ही आएगी


चौखट का दरवाजा तो भूल गया है की वो भी कभी खुला करता था,

मन करता है अंगड़ाई ले कर फटक से खुल जाए, पर बैरी कुण्डी ने हाथ बाँध रखे हैं

सूजा हुआ सा मुहं लेकर सबको मना कर देता है,


हवा अब थम गयी है

पसीने की धार से पूरा चेहरा ढक गया है,

पंखा हवा फ़ेंक कर कोशिश कर रहा है तस्सली दिलाने की

अब तो उम्र भी हो चुकी है खट खट की आवाज करता है, यह खांसी जान ले ले एक दिन


दोपहर के बाद सांझ तो आएगी ही, पर शायद इस घर में सदा सांझ का ही पहरा है,

मंदिर का दीया भी बिना दियासलाई के जलेगा कैसे,

एक बरस की दिवाली में पटाखे जलाते जलाते ख़तम हो गयी थी तिल्लियाँ

तब से कोई बाहर गया नहीं और इस घर के अन्दर कोई आता ही नहीं.

2 Comments:

Blogger ani said...

sarkaar... ati uttam!
zindagi waise to roz naye rang dikhaati hai... bas kayi baar haath aage karke mutthi me sametne ki der hoti hai!

3:25 PM  
Blogger Chhavi Negi said...

always want to write this kind of detailed and symbolic article.
great stuff and description.

12:05 PM  

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