Wednesday, August 17, 2011

ओ धरा पर जीवन बरसाने वाले पयोधर, जीवन शक्ति का संहार न कर.

मेघ घमंड से लबालब, अपने ही उन्माद में गरजते हुए, ये पागल मतंग रुकते कहाँ है

अपनी अट्टहास के आगे सब को ठिठुरते हुए देखना , और फिर अपने ही रोब में इतरा के घूमना

नयी नयी सत्ता पाए हुए राजा के मद में मस्त चेहरे के सामान अरे ओ निष्ठुर बादल कुछ तो लज्जा रख

यह प्यासी वसुंधरा कबसे तरसते आँखों से तेरा इन्तेजार कर रही थी, चेहरे पे यह वो झुरिया देख रहा है,

हर एक लकीर एक उम्मीद भरे पल की निशानी थी,

तू अब कहाँ देखेगा, तू परदेसी आते ही सारे कुनबा उजाड़ दिया,

एक आह भी सुनने, से पहले तुने तो सब बहा दिया, इस मूक धरा को अब कौन समझाए.



वो खाई के पार वाले जंगल, सुलग सुलग कर जले थे इस जेठ में

एक इस आस में की तेरी निर्मल बोछारों से, जले के घाव कुछ तो शांत होंगे,

काली राख से सनी शाखें, नहा धो कर फिर से जीवन बसर करेंगे

पर ओ निर्लज, तुने तो हाहाकार मचाया

अब उफान भरती नदी में दरख्तों और टहनियों की लाशें बह रही है



यह जो कंधे झुकाए , उम्र दराज पहाड़ तुझे सलाम कर रहे हैं, कुछ नजर आ रहा है?

इन्होने कभी शीश नहीं झुकाए थे, पर ओ रे जलधर तूने तो पूरा सागर ही सर पे फोड़ डाला,

सारा जीवन आँखों के सामने सामने बिखर गया, कुछ एक के तो पाँव भी नहीं संभल रहे, टूट से गए हैं अब यह पर्वत


जब यह वायु थम जायेगी, और यह थमेगी जरूर,

तब इस शमशान के खड़े खड़े तुम किसका हाथ थामोंगे,

कौन तुम्हे दिलासा देगा, कौन तुम्हें दरवाजे तक छोड़ के आएगा

अभी तो तुम जीत रहे तो , कल फिर कौन तुम्हारी राह देखेगा



ओ धरा पर जीवन बरसाने वाले पयोधर, जीवन शक्ति का संहार न कर.

0 Comments:

Post a Comment

Subscribe to Post Comments [Atom]

<< Home