Wednesday, August 24, 2011

Shivering stars


Despondency creeping in as the light fades off with the sun
silhouette of her figure at the horizon,
unable to reach out or to even hope if she is looking back or staring ahead
hope..

Shivering stars still pondering to sparkle in the moonless nite.
down on the knees, gradually the world crashing down
dry eyes wont even wash off the dream
dream...

Air is frosty and still, warmth is no more,
sound of a bell tolling distantly in a temple
to mark the gate closure and last pray of the day
pray..

Monday, August 22, 2011

हमें रोज घर में खाना चाहिए

सुना है आज मैदान में फिर से किसी ने हुंकार भरी है
सुना है आज फिर कोई सरकार से टकराने को तैयार खड़ा है
आज फिर से एक नए आन्दोलन की शुरुआत है

जन सैलाब उमड़ पड़ा है
आज सब उस अर्जुन की विजय की प्राथर्ना कर रहे हैं
सब अपने अपने कर्मभूमि से छुट्टी लेकर
उस नयी 'लीडर' का उत्साह वर्धन करने मैदान में आ रहा है

पर हमारा क्या?
हमारी माँ जो अस्पताल के जनरल वार्ड में भर्ती है
पर डॉक्टर आज रैली में है
बाबा जो सिग्नल में फँसी हुई अमबुलंस में जुज्झ रहे हैं
मोहल्लेह में चोरी हो गयी पर
पुलिस ऑफिसर नदारद हैं
ड्यूटी लगी है मैदान में

वो बाल श्रमिक जो टोपी बना रहा है, झंडे सी रहा है
सुना है 'डिमांड' ज्यादा है झंडे और टोपी की
कल से और बच्चे काम करने आयेंगे गोदाम में

वो मजदुर जिसे ५ बजे तक माल पहुचना है रेलवे स्टेशन में
फंसा पड़ा है इस रैली के बीच में
गाडी छुट गयी तो शायद आज भी भूखा रहना पड़ेगा

माना नेता भ्रष्ट हैं
राक्षस हैं वदध योग्य हैं
पर उनकें संहार में क्यूँ हम पिसें

गेहूँ की पिसाई में घुन तो पिस्ता ही है
वो सरकारी और प्राइवेट नौकरी वाले तो शाम को आते हैं
और जन सम्रथन में नारे दे कर
रात को चैन की नीद सो भी जाते हैं

कल १लाख लोग आये थे, उनके फेंके हुए तिरंगे
पानी की बोत्तले, झूटे खाने के पत्रे हमने साफ़ किये थे
पता नहीं कौन किस को पीस रहा है इस लड़ाई में

यह घुन हमेशा हम ही क्यूँ बनें
हमें भी न्याय चाहिए हमें भी साफ़ सुथरी सरकार चाहिए
पर उन सबसे बढ़ के हमें रोज घर में खाना चाहिए

Wednesday, August 17, 2011

ओ धरा पर जीवन बरसाने वाले पयोधर, जीवन शक्ति का संहार न कर.

मेघ घमंड से लबालब, अपने ही उन्माद में गरजते हुए, ये पागल मतंग रुकते कहाँ है

अपनी अट्टहास के आगे सब को ठिठुरते हुए देखना , और फिर अपने ही रोब में इतरा के घूमना

नयी नयी सत्ता पाए हुए राजा के मद में मस्त चेहरे के सामान अरे ओ निष्ठुर बादल कुछ तो लज्जा रख

यह प्यासी वसुंधरा कबसे तरसते आँखों से तेरा इन्तेजार कर रही थी, चेहरे पे यह वो झुरिया देख रहा है,

हर एक लकीर एक उम्मीद भरे पल की निशानी थी,

तू अब कहाँ देखेगा, तू परदेसी आते ही सारे कुनबा उजाड़ दिया,

एक आह भी सुनने, से पहले तुने तो सब बहा दिया, इस मूक धरा को अब कौन समझाए.



वो खाई के पार वाले जंगल, सुलग सुलग कर जले थे इस जेठ में

एक इस आस में की तेरी निर्मल बोछारों से, जले के घाव कुछ तो शांत होंगे,

काली राख से सनी शाखें, नहा धो कर फिर से जीवन बसर करेंगे

पर ओ निर्लज, तुने तो हाहाकार मचाया

अब उफान भरती नदी में दरख्तों और टहनियों की लाशें बह रही है



यह जो कंधे झुकाए , उम्र दराज पहाड़ तुझे सलाम कर रहे हैं, कुछ नजर आ रहा है?

इन्होने कभी शीश नहीं झुकाए थे, पर ओ रे जलधर तूने तो पूरा सागर ही सर पे फोड़ डाला,

सारा जीवन आँखों के सामने सामने बिखर गया, कुछ एक के तो पाँव भी नहीं संभल रहे, टूट से गए हैं अब यह पर्वत


जब यह वायु थम जायेगी, और यह थमेगी जरूर,

तब इस शमशान के खड़े खड़े तुम किसका हाथ थामोंगे,

कौन तुम्हे दिलासा देगा, कौन तुम्हें दरवाजे तक छोड़ के आएगा

अभी तो तुम जीत रहे तो , कल फिर कौन तुम्हारी राह देखेगा



ओ धरा पर जीवन बरसाने वाले पयोधर, जीवन शक्ति का संहार न कर.

Monday, August 08, 2011

ट्रांस्फोर्मर


मोहल्लेह में ट्रांस्फोर्मर बिजली के तारों से घिरा रहता है


यह सब नसें खून बढाती थी कभी अब खून निचोड़ रही है




सब लोग आते जाते गुजरते तो हैं


पर कोई भी रुक कर हाल पूछता नहीं




कल सब लोग सकून से घर में सी की ठंडी बयार में सो रहे थे


अचानक सारा खून सूख गया और वो खड़ा खड़ा ही जल गया


सब लोग परेशान से उसे कोस रहे हैं


नसें ढीली पड़ी हैं अब

Sunday, August 07, 2011

समंदर की गहराई


बचपन से ही जहाज बनाने का सपना था

बारिशों में लम्बें चौड़े रंगीन बेरंगें बहुत जहाज बनाये थे,

सरकारी लाईब्ररी में जहाजों के फोटो देख देख कर वो जूनून सा हो चला था

स्कूल के साईंस प्रोजेक्ट में इनाम भी मिला और खूब प्रोत्साहन भी

बचपन से ही जहाज बनाने का सपना था


एटलस में सारे देश नाप लिए थे,

पूरी दुनिया में घुमने के लिए बस्ता बाँध कर चल देंगे

सात समंदर, पांच महासागर , दुनिए के आखिरी कौने तक पहुँच के डूबते सूरज को भी तो देखना था

जिस दिन पता चला धरती गोल है , रात में खाना नहीं खाया था

बचपन से ही जहाज बनाने का सपना था


कब बाबा की फैक्ट्री में काम करना शुरू कर दिया

कब जहाज की जगह गत्ते के डब्बे बनाने लगा

बारिश आती गयी और डब्बे ही बनते रहे

दुनिया में कुछ नए देश भी पैदा हो गया थे, पर वो पुराना एटलस अब नहीं मिलता, कुछ नये रस्ते बनाने थे उसमे


दो बार घर से भी भगा था,

पर वो समंदर अचानक से बहुत बड़ा लगने लगा

समय ने खिंच तान कर सब को लम्बा तो कर दिया

पर जहाज छोटे ही रह गए, घर वालों ने रो रो कर वापस गत्ते का काम थमा दिया

आजकल प्लास्टिक के डब्बे बनता हूँ , यह पानी में ख़राब भी नहीं होते,


वो पुराने सारे कागज के जहाज तो पानी में एक एक कर डूबते चले गए

समंदर की गहराई का अंदाजा सा लग गया है अब

किनारे की बस्ती में ही जिंदगी बसर होगी शायद